आधुनिक तकनीक से लैस भव्य अस्पतालों के बावजूद दलित महिलाओं की बीमारियां और इलाज के अभाव में उनकी मौतें भारत की ज़मीनी सच्चाई हैं। यह स्थिति बताती है कि सेहत का सवाल महज़ कुछ विषाणुओं और इलाज से ही जुड़ा हुआ नहीं है और न ही केवल महंगी तकनीक और भव्य अस्पतालों के ज़रिए एक सेहतमंद समाज के सपने को पूरा किया जा सकता है। दलितों के जीने और काम करने की स्थितियां बीमारियों के खतरे को कई गुना बढ़ा देती हैं। जिन स्वास्थ्य सेवाओं पर दलित निर्भर हैं वे सक्षम नहीं हैं। वहीं देश में फैल रही आलीशान चिकित्सा सुविधाएं उनकी पहुंच से बाहर हैं। दलित महिलाओं का स्वास्थ्य एवं अधिकार एक तरफ़ सामाजिक गैर बराबरी को दूर करने और सत्ता प्रतिष्ठान को वंचितों के प्रति संवेदनशील बनाने की मांग करती है तो दूसरी तरफ यह वंचित तबके द्वारा अपने अधिकारों के लिए चलाए जा रहे विभिन्न संघर्षों का भी लेखा-जोखा पेश करती है। देश के जाने-माने समाजशास्त्रियों पत्रकारों और शोधकर्ताओं के लेखों से सजी यह किताब महंगी तकनीक और अंतरराष्ट्रीय मानकों की चमकदमक में खोने के बजाए ज़मीनी स्तर पर बदलावों की वकालत करती है।
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